प्रचार खिडकी

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

बिखरे -समेटे , चंद आखर .........झा जी कहिन




चित्र , गूगल सर्च से साभार 


सायकिल से गिरने की चोट , कैसे मां से छुपाई थी ,
महीनों बाद सिर्फ़ निशान देख , उसकी चीख निकल आई थी,
न वो सडक बची ,न सायकिल और अब तो मां भी नहीं
उस दोस्त की तलाश में हूं ,साइकिल जिससे मांग कर चलाई थी ...


इतने पर भी हाय तौब्बा और ये ठसक ,
कि उफ़्फ़ जरा भी शर्मसार नहीं हो ,
हम तो कब से लिए बैठे हैं बहीखाते तुम्हारे ,
हिसाब के लिए तुम्ही तैयार नहीं हो


तहज़ीब से बात करना मिला फ़टेहाल , कांधे पर कमीज़ नहीं थी ,
सलीकेदार थी अचकन उसकी , पर उसे सलाम करने की तमीज़ नहीं थी


कौनो सीडिया रहा है (अमर बब्बा),कौनो चिट्ठिया रहा है (दादा मुकर्जी)
सियासत के इस नए दौर में , हर कोई किसी के पिछवाडे लतिया रहा है


जिंदगी छोटी सी है , उस पर,जिंदगी की दुश्वारियां बहुत हैं ,
गरीबों के अस्पताल कम हैं , मगर उसकी बीमारियां बहुत हैं


भ्रष्ट , बेईमान,घोटालेबाज़, ढीठ और बेसरम ,
कलमाडी , मोझी , राजा , रेड्डी, चिदंबरम .....


उन्होंने चुटकियों में रिश्तों को पकड रखा था , बजाते ही टूट के बिखर गए ,
हंसते हुए गए हों न हों , रोते ही लौटे वापस , जब उनकी गलियों से गुज़र गए ...


सवा अरब के लोगों का ये देश , क्या इतना भी काबिल नहीं ,
खुद बोल ले कभी , ऐसा एक पी एम तक इसे हासिल नहीं...





 
 
 
आज के लिए इतने ही शब्द ........

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

कुछ बेतरतीब से , छिटके , भटके ....कुछ बिखरे आखर





पिछले दिनों मन अशांत रहा और शायद उद्वेलित भी , जाने किन किन रौ में बहता हुआ क्या कुछ लिखता रहा , कहीं स्टेटस के रूप में तो कहीं किसी टिप्पणी के रूप में , देखिए आप भी ,






लो फ़िर दे गया आदेश किसी को , कोई पाकिस्तानी आका ,
अजमल , अफ़ज़ल , को ज़िंदा रखो , करें रोज़ शहर में धमाका


राजा , कलमाडी , मोझी , रेड्डी , और आज गए अमर ,
अजब देश की गजब कहानी , जेल में अब सिर्फ़ नेता आते नज़र .
 
 
 
बहिन जी का जुत्ती आया , धर के हवाईजहाज ,
विकीलीक्ज़ को आगरा भेजो , खोल दिहिस सब राज़ ...
 
 
 
 
आजकल बस एक ही बात , इकदूजे से ,पूछें जेल के संतरी ,
कित्ता स्कोर हो गया टोटल , अबे कितने आ गए मंतरी ...
 
 
 
लो फ़िर दे गया आदेश किसी को , कोई पाकिस्तानी आका ,
अजमल , अफ़ज़ल , को ज़िंदा रखो , करें रोज़ शहर में धमाका ...
 
 
 
कै ठो नयका प्रपोजल ले के ,पिरधान जी,चले थे ढाका ,
रूठ के ममता बैठ गईं , लुट गए मोहन काका ...
 
 
 
अमर जी मांगे थे छूट , रे हमरी एक किडनी है फ़ेल ,
अदालत बोली , एक किडनी वाले भी जा सकते हैं जेल .....
 
 
 
तुम कमज़ोर , हो कायर भी , निर्दोंषों को छुप कर देते मार ,
तुम निश्चिंत , तुम बेफ़िक्र , क्योंकि फ़िर बचा लेगी सरकार ,
आम आदमी ही बस क्यों रहता , निशाने पर हर बार ,
कभी उन्हें भी मौत दो , जो देते तुम्हें हथियार ......
 
 
कोई घडियाली टसुए बहा रहा होगा , 
क्या किया , क्या करना है , बता रहा होगा ,
कल वही , उसी हैवान की बगल में , 
किसी ज़ेल में भी , कहकहे लगा रहा होगा 
 
 
 
अब क्यों सुनें और क्या सुनें तुम्हारी ,
तुम्हारी ही सुन कर तो इतने जीवन बर्बाद हुए ,
अबे छोडो , हर बार वही बकवास करते हो , तुमसे तो,
नए जुमले भी अब तक नहीं ईज़ाद हुए .




पिरधान जी पिरेसान थे , केतना सताया टू जी ,
ये जी जी की आदत गले पडे ,अब आ गए हू जी













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