प्रचार खिडकी

बुधवार, 6 जुलाई 2011

मन हाथ से कहता है , कलम बूझता जाता है .... बिखरे आखर




कवि जी आपके जाने पहचाने से हैं 




यूं ही सिलसिला चलता है,यूं ही बनते हैं अफ़साने अक्सर 
मन हाथ से कहता है   , कलम बूझता जाता है ....


अब तोतों के झुंडों का , मुझे इंतज़ार नहीं रहता ,
गनीमत है कि कबूतरों का , जोडा दिख तो जाता है ....


बेशक तुम्हारे दौर के गीत अलग और बोल अलग , 
शुक्र है कि अब भी हर रेडियों , पुराने गाने बजाता है ...


दुश्मन मोहब्बत का लाख हो जाए ये जमाना तो क्या ,
हर गली में किसी लडकी लडके को प्यार हो ही जाता है ...


है गरीब की किस्मत , एक नियति बस एक सी ,
कभी कुदरत सताती है , तो कभी इंसान सताता है ..


गया वो दौर , छुप कर एहसान निभाने का ,
अब जो जितना भी करता है , वो उतना जताता है ...


आज नशे में चूर हैं जो , मतवाले बौराए बेशर्म से ,
एक मौसम आता है ,हाथ जोडे वो दर दर पे जाता है ....

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