प्रचार खिडकी

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

अबकि दोस्तों की दीवाली खूब अच्छी मनी....







अबकि मेरे कुछ
दोस्तों की दीपावली
बहुत अच्छी मनी,
या कि उन्होंने ,
इसे खुद ही
अच्छी तरह मनाया।

होली में कुछ
गडबड हो गई थी,
मगर इस बार ,
पर्याप्त थी बोतलें,
और चखना भी ,
बहुत स्वादिष्ट था,
इसलिये सबने,
चार चार पैग, ज्यादा चढाया।

बस इतना हुआ कि ,
जो बच्चे उनके
दिवाली मनाने को आतुर थे,
जब देखा कि ,
उनके पापा व्यस्त हैं,
मगर नसीहत थी कि
पटाखे किसी बडे के साथ चलाना,
सो क्या करते, सबने,
उन पटाखों को मेरे साथ चलाया।

क्योंकि उन्हें पता था,
कि जब अंकल को
होली के रंग पसंद आये,
तो दिवाली की रोशनी भी भायेगी.........................................

सोचता हूं...दोस्तों के पर्व कितने कमाल के होते हैं न..कितनी समानता , कितनी एकरूपता होती है...रंगों का पर्व हो या रोशनी का...भाई बहन का हो या पति पत्नि का सब एक ही जज्बे से मनाया जाता है....सब कुछ ग्लासों में ही डुबाया जाता है॥

शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2009

एक समाज की दो दिवाली


पिछले कुछ वर्षों से जब से दिल्ली में रह रहा हूं, यहां के सभी पर्व त्योहारों को बारीकी से देखने समझने की कोशिश करता हूं। बारीकी से शायद इसलिये भी क्योंकि अनायास ही उसकी तुलना ग्रामीण क्षेत्रों में उन पर्वों को मनाये जाने के तरीके से करने लगता हूं। ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं कि ये अंतर इतना बडा है कि खबर बन जाये कि अमुक जगह पर दिवाली में लोगों ने एक दूसरे को गुलाल लगाया। मगर यकीनी तौर पर अपने अनुभवों से इतना तो जरूर कह सकता हूं कि ..चाहे किसी भी कारणों से...आर्थिक, सामाजिक या और किसी....मगर दोनों परिवेशों में पर्व त्योहार अपना स्वरूप बदल लेते हैं। हो सकता है ऐसा सिर्फ़ मुझे लगा हो , किंतु लगा तो है ही।


पहले बात करते हैं ग्रामीण क्षेत्रों में मनाई जाने वाली दिवाली की । मुझे याद है कि दिवाली की तैयारी वहां शुरु होती थी ..सफ़ाई और स्वच्छता वाले हमारे अभियान से । अभियान कोई राजनीतिक या सामाजिक नहीं था जी ...अपना पर्सनल सा था...तू मेरा हाथ बंटा मैं तेरा.....इस टाईप का। और हम कुछ युवक साथी....घर , बाहर, दालान, खलिहान, यहां तक की छोटी छोटी गलियों तक को साफ़ कर डालते थे। दीपावली की सुबह तो सडकों पर झाडू तक लगा कर उन्हें यथा संभव साफ़ कर दिया जाता था । इस काम में जो मजा और सुख मिला ..वो आज तक फ़िर कभी नहीं मिल पाया। अभी कुछ दिनों पहले जब गांव से समाचार जाना तो दुख हुआ ये जानकर कि अब तो सब बाहर ही आ गये हैं सो उतना तो नहीं हो पाता। महिलाएं गाय के गोबर से लीप कर आंगन को पवित्र कर दिया करती थीं। फ़िर आती थी बारी बाजार हाट की । गांव का आर्थिक परिवेश बेशक बहुत सी अघोषित सीमांए बना देता है, मगर शायद इस लिहाज से ये ठीक ही रहता है कि कम से कम इसी वजह से वहां का समाज शहरी दिखावट और औपचारिकता से बच जाता है। मिट्टी के दिये,खिलौने, लक्ष्मी गनेश की मूर्ति..और चीनी के बने खिलौने, जो प्रसाद में लगते थे। सबसे ज्यादा मारा मारी होती थी मिट्टी के तेल की आखिरकार हमारी सारी ढिबरियां उन्हीं तेलों से तो जलनी होती थीं। और वो डिपो वाला डीलर इसी समय अपने सारे दांव खेलता था ।
उस दिन मां सबसे पहले पूजा की तैयारी करती थी, फ़िर पूजा और सबके साथ की गई वो आरती कहां मिल सकता है अब ऐसा। इसके बाद भोजन..मां अपने हाथों से जाने क्या क्या बना देती थी ..हम खाते खाते थक जाते थे, मगर पकवान खत्म नहीं होते थे। फ़िर होती थी पठाकों की बारी, मगर बहुत ही कम इतने नहीं कि कान फ़ट जाये और चारों तरफ़ धुंआ ही धुंआ दिखे।


अब पिछले कुछ सालों से जो दिवाली मना रहा हूं वो भी तो देख ही लिजीये। तैयारी शुरु होती है ..इस बात से कि इस बार बोनस, फ़ेस्टिवल एडवांस, इन्क्रीमेंट और इन सब जैसे अन्य स्रोतों से कुल मिला कर कितना आ जायेगा...उसमें सब हो पाएगा कि नहीं। इसके बाद शुरू होती है खरीददारी...खरीददारी.....और बहुत सारी खरीददारी। अजी पहले कपडों की, फ़िर घर में रखे जाने वाले सजावट के सामानों की, फ़िर जो उपहार सबको बांटने हैं उनकी, फ़िर पटाखों की, फ़िर मिठाईयों की.....और पता नहीं क्या क्या। घर सजता है तो सब बनावटी सामानों से, बनावटी मिठाईयो ,और अब तो सुना है कि नकली भी , के साथ बनावटी गिफ़्ट लिये...और एक सबसे जबरदस्त बनावटी मुस्कुराहट के साथ ..लोग आपके घर आयेंगे या नहीं तो आप उनके घर जायेंगे। यदि आपका रिश्ता सोमरस नहीं है...तब तो आपका चयन सिर्फ़ इस बात के लिये हो सकता है कि आप अपने बच्चों के साथ पडोसी के बच्चों को बिल्कुल सुरक्षित दिवाली मनवाएंगे। और सच कहूं तो मुझे दिवाली , कम से कम यहां की दिवाली के लिये सबसे ठीक यही ड्यूटी लगती है।घर के खाने की कौन कहे..वो तो दो दिन पहले से ही बंद हो जाता है..सिर्फ़ बजारों में घूमिये और ठूंसे जाईये जो मन करे न करे।

मगर इस बार मैंने तय कर लिया था कि सब कुछ अपने मन मुताबिक करूंगा, घर बाहर की सफ़ाई, खुद के हाथों से बनाये गये से सजावट,,अपने हाथो से रंगोली,,,और भी बहुत कुछ ..तैयारी में लगा हूं....आप भी लगे ही होंगे...बस उत्सुकता ये जानने की हो रही है कि कौन सी वाली मना रहे हैं.....आखिर एक दिवाली को दोनों समाज कितने अलग अलग रूप में मनाते हैं न...
आप सबको दिवाली की बहुत बहुत शुभकामनायें।

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

महिलाओं में परकाया प्रवेश : कुछ दिलचस्प तथ्य/अनुभव


संचिका वाली सुश्री लवली कुमारी ने अपनी इस पोस्ट के माध्यम से बहुत ही मह्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया। उन्होंने अपने शोध /अध्य्यन और अनुभव के आधार पर महिलाओं में परकाया प्रवेश ..या कहें कि भूत प्रेत का आना ..पर एक सारगर्भित पोस्ट प्रस्तुत की । मैं खुद इस विषय पर काफ़ी पहले से कुछ लिखना चाहता था ।हालांकि इसका कारण मेरे पास कुछ निजी था । दरअसल आज से लगभग बीस साल पहले जब मेरे दीदी का स्वर्गवास हुआ तो उसके कुछ महीनों बाद मेरी एक चचेरी बहन की ससुराल से ये संदेश आया कि दीदी की तथाकथित आत्मा मेरी उस बहन के अंदर आ जाती है और उसे तथा उसके परिवार को तंग करती है।मुझे बहुत क्रोध आया क्योंकि मैं जानता था कि मेरी उस चचेरी बहन से हमारी मुलाकात भी शायद कभी एक आध बार ही हुई हो। इसके बाद अभी कुछ समय पहले स्वर्गवासी हुई मेरी माता जी भी उसी चचेरी बहन के सपने में आ गयी और उसके अनुसार उन्होंने उसे मारा पीटा। इस बार मेरी सहन शक्ति जवाब दे रही थी...सो मैंने कहलवा भेजा कि ..दरअसल वो ये कहना चाह रही थीं कि इतने नाटक कर रही हो किसी न किसी दिन तुम्हें सच में ही आकर इस बात के लिये कोई पीटेगा। वो और नाराज़ हो गयी और अब उन्हें सपने आने बंद हो गये।हमारे परिवार में इस भूत प्रेत के आने की बात हमारी दादी से शुरू हुई थी..जिन्हें हमने अपने बचपन से अभी कुछ दिनों पहले तक, जब तक कि उन्होंने बिस्तर न पकड लिया , किसी न किसी प्रेतात्मा, देवी के साथ ही देखा। इसका एक असर तो ये हुआ कि परिवार की कम से कम चार महिलायें/बेटियां/बहुएं .उन्हीं की प्रेरणा पाकर आगे जाकर काफ़ी प्रसिद्ध हुईं...मतलब खूब चर्चा हुई उनकी...और लानत मलामत भी।

अब जबकि लवली जी ने बहस की शुरूआत कर दी है तो लगा कि उचित होगा कि इस बहस को आगे बढाया जाये। इस व्यवहार/रोग/प्रचलन ....जो भी कहिये ..के वैज्ञानिक कारण और पहलू से मैं इतना वाकिफ़ नहीं हूं । किंतु अपने तथ्यों के संकलन और अनुभव के आधार पर मैंने कुछ दिलचस्प परिणाम ढूंढे हैं जिन्हें आपके सामने रख रहा हूं ।

उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में ये उतना देखने में नहीं आता ।
जी हां अब इसके कारण क्या हैं ये तो पता नहीं, किंतु ये सच है कि उत्तर भारत के बिहार , उत्तर प्रदेश , उडीसा, बंगाल आदि राज्यों में ही ये सबसे ज्यादा प्रचलित है। दक्षिण भारत में किसी एक राज्य, या किसी अमुक क्षेत्र में इस तरह के भूत प्रेतों का चलन महिलाओं में नहीं देखने को मिलता है। ऐसा नहीं है कि वे पराशक्तियों के अस्तित्व को नकारते हैं। मगर भूत प्रेत, देवी देवता, आदि मनुष्यों पर आते नहीं देखे जाते।

पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में इसका प्रतिशत लगभग नब्बे गुना ज्यादा है ।भूत प्रेत, चुडैल, देवी माता...आदि का जब भी जिक्र आता है तो अधिकांश घटनाओं में इससे ग्रस्त महिलाएं ही होती हैं...जबकि इनका इलाज करने वाले तथाकथित तांत्रिक/ओझा/गुनी/ ...अक्सर पुरुष होते हैं..जो खुद भी इनका इलाज करने के लिये ऐसी ही परकाया प्रवेश की शक्तियों के अपने अंदर होने का दावा करते हैं। इसका एक दुखद पहलू ये है कि अक्सर ये गुनी /ओझा/ ..इन सबका इलाज करने के बहाने ....इन पीडित महिलाओं का शोषण ..दैहिक/आर्थिक/सामाजिक रूप से करते हैं।मैंने अपने ग्राम्य जीवन के दौरान ओझाओं को इन महिलाओं के शरीर से इन भूतों का साया निकालने के लिये वो सब करते देखा है ....कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

इसके अलावा एक दिलचस्प जानकारी ये मिली कि...ग्रामीण क्षेत्रों में ही ये भूत प्रेत, चुडैल आदि विचरते हैं। शायद वे ये सोच कर शहर नहीं आते होंगे कि शहर का इंसान तो अपने आप में ही किसी भूत से कम नहीं। यहां स्त्रियों में जो भी इस तरह की घटना घटती भी है तो वो देवी के आने के रूप में ही ज्यादा प्रचलित है। इसी तरह कामकाजी महिलाओं में इन परकाया भूतों का संचारण नहीं हो पाता है। शायद ही किसी महिला ...सैनिक/अधिकारी /कर्मचारी /डाक्टर आदि पर भूत आते देखा गया हो।

जहां तक इनके कारणों की बात है तो इसके प्रचलन का क्षेत्र/ पीडित महिलाओं का सामाजिक/शैक्षिक/मानसिक स्तर को देखते हुए कुछ बातें तो निष्कर्ष स्वरूप निकल ही आती हैं। ये मूलत: अशिक्षा/अज्ञान/और अंधविश्वास के मिलन का ही परिणाम होता है। सामाजिक परिवेश , धार्मिक कर्मकांड ,जागरूकता का अभाव तथा सरकार द्वारा ऐसी समस्याओं की उपेक्षा.....ही वो कारक हैं जिसके कारण आज जबकि देश वैज्ञानिक रूप से इतना विकसित हो चुका है ...फ़िर भी ये सब बदस्तूर जारी है। और निकट भविष्य में भी जारी रहेगा...ऐसा मुझे लगता है।


सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

अब राजधानी में भी हो सकेगी ठंड में दिवाली....


पिछले कुछ दिनों से देख कर तो यही लग रह था कि ...इस बार तो ये मुई गरमी सारे रिकार्ड तोड कर रख देगी....अब रिकार्डों का भी क्या कहें....चाहे क्रिकेट के हों.... या मौसम के ..बस बनते हैं और टूटते हैं....।
और मौसम के रिकार्ड का क्या कहें...हमारे मित्र लपटन जी कहते हैं.. ...ये ससुरे ..मौसम के रिकार्ड भी शीशे की तरह ...अजी तरह क्या उनसे भी नाजुक होते हैं...पता ही नहीं चलता ..कब टूट जाते हैं...और जब देखो...पिछले बीस बरस..पच्चीस बरस...इतने लंबे समय के ही टूटते हैं...।

लपटन जी ऐसे ही मौसम में कहने लगे झाजी ....अबके तो होली मनेगी होली.........

आयं..अमा लपटन जी आप भी कौनो बात ....कुछ भी बोल जाते हो...शुक्र मनाओ कि ..ब्लागर नहीं हो...नहीं तो...आपको का पता..इहां बिटवीन दि लाईंस ....को समझ कर भी लोग बाग पोस्ट लिख मारते हैं.....अब ई हम उनको नहीं बताये कि ..लोग पोस्ट मारते हैं कि ....लिख कर मारते हैं......ई समय में होली....अब तो दिवाली आने वाला है जी....रावण को फ़ूंकने के बाद ..जौन पटाखा बचा था...ऊ सब ठो बिटवा को दे भी दिये हैं फ़ोडने के लिये.....और आप कह रहे हैं कि होली मनायेंगे.....
(दिल्ली में छाये बादल)

अरे यार झा जी....ई गर्मी को देख कर तो यही जी कर रहा है कि ..दिवाली से बढिया तो यही है कि होली मनाई जाये....कम से कम पानी से राहत तो मिलेगी न.......

बात तो लपटन जी ठीक ही कह रहे हो आप......?

बस सुबह के इस संवाद को जैसे इंद्र देवता ने सीरियसली ले लिया.....

नतीजा आपके सामने...पहले कुछ इस तरह के बदरा छाये ........

फ़िर बरखा भी छमछम आयी.......


हमने भी फ़ौरन लपटन जी को मैसेज किया....विश यू ए दिवाली.....इन स्वीट ठंड...लपटन.....














शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

मेरे बाद भी मेरी आंखें.... देखेंगी ये जमाना ...


कभी कभी जीवन में कुछ अनसोचा सा हो जाता है..,..कई बार ये दुखदायी होता है तो कई बार ...ऐसा होता है कि ....लगता है कि...अरे मैंने तो यही सोचा था ...मगर ये पता नहीं था......कि ये सब यूं हो जायेगा.....मगर हो जाने पर एक सुकून सा मिलता है मन को ....यहां दिल्ली में दुर्गा पूजा बहुत धूमधाम से नहीं होती ...मेरा मतलब उतने धूमधाम से नहीं जितने कि हमारे बिहार या उसके पडोसी राज्य बंगाल में होती है...अलबत्ता ये जरूर है कि ...यहां रामलीला खूब होती है...न सिर्फ़ होती है...बल्कि जमती और जंचती भी है।

<<(देखो रे संस्था का बैनर)

इससे पहले हम जहां रहा करते थे ..उसके आसपास रामलीला नहीं होती थी सो कभी बच्चों का मन भी हुआ तो कहीं किसी एक या दो दिन का कार्यक्रम बना कर जाना पडता था उन्हें रामलीला दिखाने ...मगर अब जहां हमारा निवास स्थान है ...वहां से निकट ही रामलीला भी होती है ....और रावण जी को भी बाकायदा पूरे इत्मिनान से फ़ूंका जाता है...सो अब कोई बहाना नहीं चलता ..अब तो राम जी के पैदा होने से लेकर ...उनके पुत्रों के पैदा होने तक की सारी लीला हमें देखनी और दिखानी पडती है.....इसी बहाने अपना बचपन भी जी लेते हैं ।


मगर उस दिन जब रामलीला देखने पहुंचे तो एक सुखद अनुभव से मुलाकात हो गयी। वहां एक स्वयंसेवी संस्था ...देखो रे ...ने अपना मंच लगाया हुआ था ...और वे सबको घूम घूम कर बता रहे थे ......कि नेत्र दान से बडा कोई दान नहीं होता....ये संयोग की बात है कि कुछ दिनों पहले ही हम और हमारी श्रीमती जी आपस में बातचीत करते हुए इसी बात पर चर्चा कर रहे थे...और श्रीमती जी ने अपनी इच्छा भी हमारी तरह ही नेत्र दान करने की जाहिर की....हमें तो जैसे मन मांगी मुराद मिल गयी ...तो बस देर किस बात की थी ....हमने झटपट उनके.
(देखो रे ..के स्वयंसेवक ) कार्यकर्ताओं से आवेदन का फ़ार्म भर दिया .....और कर दिया अपने नेत्र दान का वादा .

सच कहता हूं ..उस दिन जो सुकून मिला ..वो अब सारी जिंदगी मेरे साथ रहेगा....और अपनी आखों का क्या कहूं ....ये तो मुझ से भी बडी हो गयीं...मेरे जाने के बाद भी ....किसी के जीवन में ..न सिर्फ़ रोशनी बिखेरेंगी बल्कि ....मेरी आखें...मेरे बाद भी जमाना देखेंगी......मुझे तो लगता है कि शायद ये सिर्फ़ जागरूगकता की ही कमी है ...अन्यथा लोग बहुत से हैं ऐसे जो नेत्र दान करने को इच्छुक रहते हैं......

अजी इसके बाद तो रामलीला ....और व्हां के मेले का आनंद हमें भी खूब आया...मेरे आग्रह और सुझाव पर कुल ११ लोग ऐसे और निकले मेरी जान पहचान के ...जिन्होंने नेत्र दान किया.....बस जी इसके बाद तो झूलों और लीला के बीच दशहरा कैसे बीता .....क्या कहें...

(चकाचौंध झूले...जिनपे हम भी खूब झूले...
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