प्रचार खिडकी

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

क्यूँ न ब्लॉग्गिंग को एक नयी दिशा दी जाए ...

पिछले दों वर्षों के दौरान इस ब्लॉगजगत पर अपने बहुत सारे पल , बहुत सी खुशियाँ, कुछ गम, कुछ उपलब्धियां, कुछ कमियाँ, कुछ दोस्त और बहुत से यादगार लम्हों को जिया है। यूँ तो मैं किसी भी बहस में कभी नहीं पड़ा, मगर स्वाभाविक रूप से और समय के अनुरूप उन विषयों और मुद्दों को जरूर छुआ और अपने लेखन का विषय बने जो सामयिक थे, मसलन इसी जूते वाली घटना को ही लें मुझे लगता है कि देर सवेर हम में से बहुतों ने इस घटना से प्रेरित होकर , या उकता कर या किसी और वजह से लिखा जरूर है। और ऐसा नहीं है कि ये पहली बार हुआ है, बल्कि हम अक्सर उन ज्वलंत मुद्दों को अपनी अपनी पोस्टों में उठाते जरूर रहे हैं । मगर अलग अलग।



सो पता नहीं क्यूँ अचानक मेरे मष्तिष्क में ये विचार कौंध उता कि क्या ये नहीं हो सकता कि हम सब कोई एक विषय या अलग अलग विषयों को उठाएं और उन पर बहस हो, मत विमत हो , चर्चा परिचर्चा का दौर चले , सब अपनी अपनी बात कहें और अपने अंदाज में कहें। हाँ भाषा की मर्यादा बनी रहे इसके लिए बहस के संचालकों को उन पर जो इस बहस जाए लाया पर जगह एक उन्हें रखना होगा . मैं जानता हूँ कि आप में से कुछ लोग कहेंगे कि ऐसा तो पहले से ही मौजूद कई कम्युनिटी ब्लॉग कर रहे हैं, किंतु आप और हम ये अच्छी तरह जानते हैं कि वे कम्युनिटी ब्लोग्स किस तरह की चर्चा कर रहे हैं और उनकी सार्थकता कहाँ तक सिद्ध हो पा रही है. चलिए यदि मान भी लिया जाए कि पहले से ही ऐसा हो रहा है तो भी ये तो हो ही सकता है कि उन्हें एक जगह पर लाया जाए और यदि ये काम ब्लॉग अग्ग्रीगेतार्स ही कर सकें तो क्या अच्छा हो?

एक और आखिरी बात , जब आप इस मंच को बनाने और उसे सामने लाने के लिए तैयार हो जाएँ तो फ़िर एक दिन तय करके पूरे सप्ताह तक उस पर चर्चा और बहस हो , सप्ताहांत में उसकी एक विषद चर्चा करके किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जाए, इस पूरी बहस को समाचार पत्रों में प्रकाशित करने की जिम्मेदारी मेरे हिस्से , मुझे यदि पहले से मौजूद ऐसे किस भी मंच में कोई शामिल करना चाहें तो उन्हें भी मेरी गुजारिश है कि आदेश दें। ऐसा हो सकता है कि इस प्रयास से कोई बहुत बड़ी क्रांति न आए , ये भी हो सक्ताहै किंतु ये तो है ही कि इससे आपको एक संतुष्टी मिलेगी और ब्लॉग्गिंग को एक दिशा, तो मार्गदर्शन करें............

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

मुद्दाहीन चुनाव :दिशाहीन लोकतंत्र

अभी कुछ माह पूर्व ही जब अमेरिकी जनता ने लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे अद्भुत प्रयोग करते हुए एक मुस्लिम अश्वेत को विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र की बागडोर सौंपी थी तो वैश्विक शाशन प्रणालियों में लोकतंत्र धाक व श्रेष्ठता पुनः साबित हो गयी थी. उस समय लोकतांत्रिक प्रणाली के स्वर्णिम सफलता ने सबके मन में, कम से कम जहाँ लोक्तान्त्रैक प्रणालियाँ हैं, में कहीं एक आस जगह दी थी की अब शायद उन देशों में भी सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलें. यदि अमेरीका सबसे पुराना लोकतंत्र है तो भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र. लेकिन चरिता, उपलब्धि , विकास, और अस्तित्व के लिहाज से आज भारतीय लोकतंत्र बिल्कुल विपरीत परिस्थितियों से गुजर रहा है. अब जबकि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र विश्व की सबसे बड़ी चुनाव प्रक्रिया से गुजरने वाला है तो लोकतंत्र की सभी प्रचलित खामियां जैसे उभर कर सामने आ गयी हैं,

यदि आंकडों पर नजर डालें तो स्थिति की भयावहता स्पष्ट दिख जाती है. अभी कुछ समय पूर्व ही विश्व प्रिसिद्ध हिन्दी रेडियो प्रसारण सेवा द्वारा करवाए गए एक सर्वेक्षण में ६७ प्रतिशत लोगों ने कहा की उन्हें अपने जन प्रतिनिदियों पर बिल्कुल भी विश्वास नहीं है. एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया की बेशक हर जाज्नितिक दल अपराध और राजनीति की संथ गाँठ का विरोध करंता दिखता हो मगर हकीकत यही है की सभी राजनितिक दल इसे अपनाए हुए हैं. पिछले संसद में भी दागी सांसदों की फेहरिस्त काफी लम्बी थी, और इस बार अब तक जो हालत दिख रहे हैं उस से तो लगता है की ये सूची इस बार और भी लम्बी हो जायेगी. सबसे बड़े दुःख और अफ़सोस की बात यही है की आज जब भारत के मेधावी लोग अपनी क्षमता, और ज्ञान का झंडा विश्व पटल पैर फेहरा रहे हैं तो ऐसे में भी ख़ुद अपने देश के प्रतिनिधियों में उनकी कोई क़द्र नहीं है. हालत का अंदाजा सिर्फ़ इस बात से ही लगाया जा सकता है की आज संसद में पढ़े ल्लिखों, काबिल व्यक्तियों, डॉक्टर्स, इन्गीनीएयर्स, विद्वान्, साहित्यकार, तथा बड़े उद्योगपतियों की भागीदारी लगभग नगण्य है. कलाकारों के नाम पर कोई शिरकत कर बी रहा है तो वो हैं अभिनेता जो बदकिस्मती से राजनीती में भी संजीदा न होकर महज दिखावटी ही लगते हैं.

भारतीय राजनीति में शीर्ष से लेकर निचले स्टार तक जब ऐसे गैर जिम्मेदार , मौकापरस्त, अनुभवहीन और गैर संजीदा लोगों की भागीदारी रहेगी तो फ़िर तो पूरा परिदृश्य स्वाभाविक रू से ऐसा ही होगा. इसी का परिणाम ये हुआ है की इतने बड़े लोकतांत्रिक राज्य के राष्ट्रीय चुनाव के मुद्दे यूँ निकल कर सामने आए हैं. हरेक राजनीतिज्ञ जो स्वयमेव घोषित या प्रायोजी प्रधानमंत्री है वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर अपना अपने दल का विचार रखने के बजाय व्यक्तिगत आक्षेप, आरोप-प्रत्यारोप में लगे हुए हैं और इसके लिए एक दूर्स की उपलब्धियों में श्रेष्ठता में होड़ के बजाय उनकी कमजोरियों गिनाने में लगे हैं. जो इससे इतर हैं वे कहीं किसी मन्दिर निर्माण का वादा कर किसी विशेष सम्प्रदाय को रिझाने में लगे हैं, या बिना सोचे समझे कहीं बिजली, पानी मुफ्त बांटने का वादा कर रहे हैं या दो तीन रुपैये की डर से चावल गेंहू बांटने का सब्जबाग दिखा रहा है. देश का सबसे बड़ा और सबसे पुराना राष्ट्रीय दल कोंग्रेस जहाँ दशकों पहले की उप्लाब्धियी ओं को गिना कर ओनी दावेदारी पेश करती है तो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी एक बेहतर विकल्प के रूप में उभरने के बावजूद जनता का बहुतमत और विश्वास हासिल नहीं कर सके जिसके एक से अधिक कई कारण थे. भारतीय राजनीति के बदलते परिवेश और नए समीकरोनो ने तृतीय मोर्चे के रूप में बहुत से क्षेत्रीय दलों के संगठन का विकल्प खोला किंतु ये भी सिर्फ़ सत्ताप्राप्ति के लिए की जा रही मौकापरस्त राजनीति भर बन कर रह गयी. हालांकि इसी कारण से जनता ने इस तथाकथित तीसरे मोर्चे को कभी एक संगठित शक्ति के रूप में नहीं देखा.

यदि भारतीय लोकतंत्र में आम लोगों की , हुमिका, भागीदारी और उसके कारण परिणामों का विश्लेषण किया जाए तो कई बातें स्पष्ट उभर कर आती हैं. अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण देश की एक बड़ी आबादी आज भी मताधिकार के प्रयोग का महत्व नहीं समझती है. इसका एक परिणाम ये होता है की ग्रामीण क्षेत्रों के कभी किसी जाती विशेष, किस धर्म विशेष, भाषा और कई बार तो चाँद रुपयों, कपड़े, कम्बल आदि बाँट कर ही लोगों का मत हासिल कर लिया जाता है. शिक्षित आबादी की स्थिति भे कुछ ख़ास आछे नहीं है, अलबत्ता कारण जरोर अलग हैं. शहरी लोग जब देखते हैं की अव्वल तो कोई उपयुक्त उम्मेदवार ही नहीं मिलता किसी राजनितिक दल का कोई चरित्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं और सबसे ज्यादा ये की किसी को भी ये निश्चित नहीं होता की कौन कब किसके साथ है और किसके ख़िलाफ़ है. इसका परिणाम ये हुआ की शहरी मतदाता राजनीति से पुर्न्ताया उदासीन हो गया है, और इसीका लाभ या हनी पूरे राजनितिक परिद्रिह्स्य पड़ पड़ता है.

अब जबकि भारतीय लोकतंत्र आधी शताब्दी से ज्यादा का सफर तय कर चुका है तो ये आवश्यक हो जाता है की इसके गुन दोषों का विश्लेषण किया जाए. समाज के चारित्रिक विघटन का प्रभाव राजनीति पर भी पड़ा और इस कदर पड़ा की देश की संचालक संस्था ही पतन के रास्ते पर चल पडी है. देश को चलाने में जिन स्तंभों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है उनमें सबसे अहन विधायिका ही है. सबसे बड़ी विडम्बना भी यही है की इसमें आयी कमियों को दूर करने के उपाय व प्रयास भी स्वयं विधायिका को ही करने होंगे , और समय समय पर इसकी कोशिश भी की जाती रही है, जिसका उदाहरण है दल-बदल क़ानून. इसके अलावा न्यायपालिका ने भी अपने आदेशों से विधायिका को भटकने से रोका है. किंतु इन प्रयासों के बावजूद स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है.

भारतीय लोकतंत्र का अध्ययन विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञों का मानना है की यदि इतने कानूनों-उपायों के बावजूद स्थिति में कोई बड़ा सकारात्मक बदलाव नहीं आ रहा है तो फ़िर एक ही क़ानून बचता है जिसके प्रयोग से परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है, वो है जनप्रतिनिधि वापस बुलाने का अधिकार. वर्तमान में प्रतिनिधियों को यही लगता है की यदि एक बार जीत गए तो कम से कम अगले पाँच वर्षों तक निश्चिंतता. नए क़ानून से उन्हें आम लोगों के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया जा सकता है. जो भी हो फिलहाल इतना तो किया ही जा सकता है की आम मतदाताओं को अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए प्रेरित किया जा सके..

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

बिक रही हैं बेटियाँ

आज इस ,
आर्यावर्त की,
पहली नागरिक,
एक औरत है,
फ़िर भी ,
जाने कैसे ,
बिक रही हैं बेटियाँ......

कहीं दिखाने को ,
सजाने को, जलाने को,
कुचलने को, दबाने को,
कहीं जिस्म की,
भूख मिटाने को,
हर समय, हर जरूरत को,
हर रूप में, हर हाल में,
मिल रही हैं बेटियाँ......

दिख रही है,
हैवानियत हर,
इंसान की आँख में,
माँओं को भी,
देखने हैं, बस,
बेटे, पोते, और नाती,
इसलिए तो , नहीं,
दिख रही हैं बेटियाँ....

ख़त्म हो रहा है,
वजूद,
धरा का, हवा का,
सुधा का, सुता का,
मिट रहा है,
शाश्वत भी, और,
मिट रही हैं बेतिया.....

यही हकीकत है जिसे कोई समझ नहीं रहा है और जब तक समझेगा तब तक.............

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

वो छत, वो रात और वो यादें ......

उस दिन अचानक किसी परिचित के यहाँ बेबसी में रात्री में रुकने का कार्यक्रम बन गया। शहरों में परिचितों के यहाँ सिर्फ़ बेबसी में या किस स्वार्थ में ही रुका जा सकता है। किस अनापेक्षित कष्ट को और ज्यादा न बढ़ने की गरज से मैंने छत पर सोने का ही फैसला किया। इसलिए उनके से आग्रह को टाल कर मैं छत पर ही चादर दाल कर लेट गया। हवा में हल्की ठंडक ने जैसे एक घुटन से आजादी का एहसास कराया। यूँ तो दिल्ली में धुंए और धूल के आसमान के कारण रात को भी तारों की चमक फीकी रहती है मगर शायद ये अब तजा बारिश के कारण था की आसमान में करोड़ों तारे झिलमिला रहे थे। उन्हीएँ तारों में झाँका तो कहीं पीछे से अतीत झांकता नजर आया।लगभग दस-बारह साल पहले एक पिछडे से राज्ये के बहुत ज्यादा नहीं पिछडे गाँव में इसी तरह हम पाँच दोस्त , भविष्य की सभी चिंताओं और जिम्मेदारियों से मुक्त अक्सर एक दूसरे की छतो पर सो जाया करते थे। या फ़िर देर रात तक आसमान में तारों को मिलाकर नए नयी आकृतियों को ढूंढते थे। क्या दिन थे वे भी, तरुनाई के, लड़कपन के। सुबह पौ फत्ते ही आन्केहीं स्वयमेव खुल जाते थी। खेतों के बीच से निकलते हुए दूर खाली खेतों में शौच क्रिया से निवृत्त होने के बाद ही आम-जामुन बधार, आदि के बड़े बगीचों में घुसकर नीम, भेंट, चीचाद के दातुन तोड़, दांत मांजते पोखर तालाब तक पहुंचना। वहां काछे लंगोटों में पोखर में नहाने के साथ साथ तैरने के साथ साथ तरह तरह के खेल खेलते थे। कभी देर तक पाने में दुबकी मार कर बैठ जाना। पोखर के उस गंदले पानी की दुबकी में मिली शान्ति न तो कभी सुसज्जित स्नानघर में मिली न ही किसी स्विमिंग पूल में । वहीं से गीले गमछे तौलिये को लपेट, नंग-धड़ंग, रास्ते में पड़ने वाले पुराने शिव मन्दिर की ऊँची घंटी को उछलकर बजाते हुए घर पहुंचना।नाश्ता कहाँ करना है , ये निर्भर था इस बात पर की कहाँ पहले बन गया। कभी चावल के प;इसे आते की, कभी मकई के आटे की और कभी मडुवे की काली मोटी मोटी रोटियाँ नमक तेल और हरी मिर्च का नाश्ता करके मिलने वाली ऊर्जा और तृप्ति उसके बाद कभी नहीं मिली। दिन में सभी घरों के छोटे-छोटे काम हम यूँ मिलकर निबटाते थे जैसे हम सब उसके शेयर धारक हों। फ़िर खाने का क्रम और वरीयता भी वैसी ही थी। दाल-चावल , हरी साग-सब्जी और चटनी से युक्त सादा भोजन काश की कहीं दोबारा मिल पाटा। दोपहर लूडो खेलते या गप्पें हांकते और शाम को चौक चौराहे पर टहलने जाते हुए बीत जाता था। उसके बाद डिबिया-लालटेन की पीली रोशनी में पढ़ाई। एक यही वक्त होता अता जब शायद हम गंभीर होते थे थोड़ा सा।मेरे मष्तिष्क में सबकुछ चलचित्र की भाँती घूम रहा था। सोचता हूँ, की काश वे दिन कभी लौट पाते। शहर की मशीनी जिंदगी में तो उन दिनोंमुलाक़ात तो दूर बात भी महीनों बाद हो पाती है। वो दिन कहाँ से वापस लाऊं। वो कोयल की कूक, तोतों के झुंड, रंग-बिरंगेई तितलिया, जामुन के ऊँचे पेड़ों पर चढ़ कर जामुन खाना, गाँव के ढेरों त्यौहार और उनके विशेष व्यंजन लाइ-चुर्लाई , तिलबा, पुदुकिया, टिकिया चुरा दही मैं टकटकी लगाये तारों में सब कुछ ढूंढ रहा था। उस रात नींद बहुत अच्छे आयी

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

शिक्षा और सरकार

इन दिनों राजधानी में कुछ बड़ी ख़बरों के बीच एक ख़बर लगभग रोज जो पढने सुनने और देखने को मिल रही है वो है , राजधानी के स्कूलों , में बढ़ी हुई फीस को लेकर अभिभावकों द्वारा किया जा रहा प्रतिरोध। अभिभावकों का गुस्सा अब धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा जो स्वाभाविक भी है।

दरअसल या कहानी तब शुरू हुई जब छट्ठे वेतन आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, इसके अनुरूप शिक्षाओं के वेतन में बढोत्तरी की सिफारिश भी की गयी, जिसे मानने के लिए सभी तैयार थे। सारकारी विद्यालयों में तो कोई दिक्कत नहीं हुई, किंतु जब यही मांग निजी विद्यालयों में उठी तो विद्यालय प्रशाशन को जैसे एक मन माँगी मुराद मिल गयी इस बड़े हुए वेतन की पूर्ती हेतु योजना ये बनी की सारा का सारा पैसा हमेशा की तरह अभिव्हावकों के जेब ढीली कर के वसूला जाए इसलिए बाकायदा पिछले साल की बकाया वसूली की योजना बन गयी। इस पैसे को पाने के लिए स्कूलों ने ठीक वही वही हथकंडे अपनाए जो बेशर्मी से कभी निजी अस्पतालाओं ने अपनाया था ,यदि कभी किसी को उसका बच्चा नहीं देना तो कभी किसी के परिजनों को मरीज की लाश तक नहीं देना. बिल्कुल इसी तरह स्कुलूँ ने भी सारी मर्यादाओं को टाक पर रख कर बच्चों के परीक्षा परिणाम तक पर रोक लगा दी .

हैरत की बात ये है की इस मामले में अदालतों के कड़े रुख और सख्त आदेशों और सरकार के खोखले आश्वासनों के बावजूद स्थिति जस की तस् है. आज देश का समाज जिस परिस्थिति में है उसमें चिकित्सा, स्वास्थय, शिक्षा, न्याय, राजनीती सभी अपने पतन की उर अग्रसर हैं किंतु शिक्षा जो की मौलिक अधिकार है उसका इस तरह से बाजारीकरण होना किसी भी दृष्टिकोण से अच्छा नहीं है .

यहाँ एक बात जो गौरतलब है वो ये की सरकार एक तरफ़ तो पूर्ण शिक्षा के दावे कर रही है, न जाने कितनी ही हवाई योजनायें बना रही है, और कितनो के सपने दिखा रही है, वहीं दूसरी तरफ़ ऐसी स्थितियों में बिल्कुल निष्क्रिय हो जाती है। शायद आपको जानकर ये आश्चर्य हो की पिछले एक दशक में सरकार ने कुल खुले विद्यालयों का दस प्रतिशत भी नहीं खोला है . yadi स्थिति ऐसी ही रही तो एक दिन ऐसा भी आयेगा की लोगों को अपने बच्चों को शिक्षा दिन्लाने के लिए अपना घर बर बेचना पडेगा। आज शिक्षा का पूरी तरह से व्यावसायीकरण कर दिया गया है। चारों तरफ़ खरीद बिक्री हो रही है, सब कुछ बिकाऊ है, शिक्षा भी .......

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

जरनैल का निशाना ही नहीं शिकार भी ग़लत था

जरनैल का निशाना ही नहीं शिकार भी ग़लत था

ये तो जाहिर ही था की इराकी पत्रकार जैदी ने जो काम किया है वो महज एक शुरुआत भर थी और उसके परिणाम आगे भी देखने को मिलेंगे मगर ये नहीं पता था की उसकी शुरुआत भारत से ही होगी. हालाँकि मैं इस बहस में बिल्कुल भी नहीं पढ़ना चाहता की जो हुआ वो ग़लत था या सही क्यूंकि इस बहस में तो सारा देश ही पड़ा हुआ है हाँ ये जरूर है की इस तरह की घटनाएं ख़ुद पत्रकारों के लिए आने वाले समय में काफी मुश्किलें खड़ी होने वाली हैं, और इसका असर जल्दी ही देखने को मिलेगा.

अब यदि बात करें पत्रकार के रूप में या कहें की एक सिक्छ के रूप में जरनैल सिंग के आक्रोश की तो १९८४ के सिक्छ दंन्गों के पीडितों का दुःख हो या गुजरात के दंगों या फ़िर भोपाल गैस पीडितों का दुःख हो, इस देश में आज तक न तो कभी किसी सरकार न ही किसी शख्सियत और न और किसी राजनीतिज्ञ ने तो कभी भी नहीं महसूस किया है. तो फ़िर ऐसे में यदि सरकार अपने अधीन किसी संस्था का दुरूपयोग करती है और सी बी आईई तो जितना अपनी काबिलियत के लिए जानी जाती थी उससे अधिक तो अब अपनी कई सारी नाकामी और उससे भी अधिक सरकार की कठपुतली की तरह काम करने के लिए बदनाम हो रही है, तो ऐसे में उससे इससे जयादा की उम्मीद ही क्यूँ की जानी चाहिए थी..

किंतु यहाँ इन सबसे अलग जो एक बात मेरे मन में खटक रही है वो ये की यदि सिक्खों को ये लग रहा है की कोंग्रेईस की सरकार में सिक्ख दंग के लिए जिम्मेदार लोगों को न सिर्फ़ बचाया जा रहा है बल्कि उन्हें तो दोबारा मौका भी दिया जा रहा है तो उनका यूँ उबल पढ़ना स्वाभाविक ही है लेकिन यदि ऐसा ही है तो फ़िर उनका सारा और पहला गुस्सा तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंग के ख़िलाफ़ ही निकलना चाहिए था, इसकी वजह भी स्पष्टतः यही है क्यूंकि सरकार के सबसे जिम्मेदार व्यक्ति स्वयं सिख्ह हैं तो फ़िर उनके ख़िलाफ़ कहीं एक शब्द क्यूँ नहीं आया. कहीं उनका पुतला नहीं जलाया जा रहा है.. न स्वयं ही प्रधानमंत्री इस सम्बन्ध में कुछ कह रहे हैं. मुझे ये भी समझ नहीं आ रहा है की यदि सिक्छ धर्म के ख़िलाफ़ होने पर पंजाब के पूर्व प्रधानमंत्री को छ महीने तक गुरुद्वारे में जूते साफ़ करने की सजा दी जा सकती है तो फ़िर आख़िर क्यूँ प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो रहा है.

इस प्रश्न का जवाब यदि सिख्हों के पास नहीं है तो फ़िर जो प्रदर्शन इन दिनों अदालतों के आसपास और कई जगह किए जा रहे हैं उनका क्या औचित्य है. जरनैल क्या सचमुच मनमोहन सिंग के साथ भी वही कर सकते थे जो उन्होंने चिदाम्बरम के साथ किया. ये प्रश्न ऐसे जरूर हैं जिनका जवाब दिया जाना चाहिए……..

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

अभी कईयों के पाँव खुजला रहे हैं ( अथ जूता प्रकरण दूसरा अध्याय शुरू )

तो आख़िर कार काफी नहीं , तो कुछ ही दिनों बाद , जूता प्रकरण का दूसरा, मगर भारतीय इतिहास का पहला, अधयाय आज संपन्न हुआइसमें कई बातें की समानता रहीमसलन दोनों में ही शिकारी अक्षर की नाम राशिः वाले थे, दोनों ही एक ही नस्ल यानि पत्रकार थे और दुःख की बात की दोनों का ही निशाना एक दम गंदा थातो कुछ भी आगे कहने से पहले पेश है कुछ गंदी सी तुकबंदी :-

आख़िर बता दिया हमने भी,
इक अमेरिका ही अकेला नहीं,
अब भारत का भी,
लोकतंत्र बदलने लगा है॥

मुझे तो यकीन हो चला है,
अब हमें भी देसी ओबमा मिल कर रहेगा,
पत्रकार सम्मेलनों में,
यहाँ भी जूता चलने लगा है॥

ज्योतिषी ग्रह-नक्षत्र देख कर,
सबको यही बतला रहे हैं,
ज नाम राशि, व पत्रकार सम्मलेन से दूर रहे,
अभी कईयों के पाँव खुजला रहे हैं॥

दोनों ही घटनाओं का सार संग्रह ये निकला ,की भारत और अमरीका का लोकतंत्र ही सच्चा लोकतंत्र है। पत्रकार सम्मेलनों में ज नाम के पत्रकारों को नंगे पाँव ही अनुमति देनी चाहिए और सबसे अहम् ये की पूरे विश्व के पत्रकारों का निशाना भी नेताओं के मामले में बिल्कुल ख़राब है,( क्यूंकि उनके निशाने में भी कभी कोई नेता नहीं आता ) । और इसलिए अविलम्ब, इससे पहले की कोई और घटना हो इन पत्रकारों के निशाने की ट्रेनिंग का प्रबंध अभिनव बिंद्रा से करवाने का प्रबंध करना चाहिए.

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

हवाएं बदल रही हैं रुख अपना

हवाएं बदल रही हैं , रुख अपना,
या कि,
मौसम का ही मिज़ाज,
गरमाने लगा है॥

जिन्हें कोफ्त होती थी,
हमारे पसीने की बू से,
हमें अब गले लगते , उन्हें,
इत्र का मजा आने लगा है ॥

गुंडों को कब डर था,
सजा पाने, जेल जाने का,
हाँ, चुनाव न लड़ पाने का,
दुःख , उन्हें भी सताने लगा है॥

कहीं भय हो, कहीं जय हो,
बेशक अलग सबकी ले हो,
झूम झूम के, घूम घूम के, हर कोई,
गीत एक ही गाने लगा है॥

हर कोई दर्दे हाल पूछता है आजकल,
सबको सरोकार है मेरी मुश्किलों से,
जिसने दिए जख्म अब तक,
अब वही उन्हें सहलाने लगा है॥

वो और था ज़माना हमारा,
कि आए , और लिख कर चल दिए,
अब कोई इतना मासूम कहाँ हैं,
हर कोई ब्लॉग सजाने लगा है॥

सूना है छापा पड़ने वाला है , इनकम टैक्स का,
अपने किसी ब्लॉगर के यहाँ भी,
लगता है ख़बर फ़ैल गयी है कि,
अब हिन्दी ब्लॉगर भी कमाने लगा है।

तो भाई लोगों जो जो मोटा कम रहे हो, सब तैयार हो जाओ। अपना क्या है अपनी तो रद्दी की टोकरी है जिसमें कभी भी कुछ भी , ये देहाती बाबु कहते रहते हैब। हाँ छापा पड़े तो बताना जरूर, अजी हमसे कैसी शर्म .



रविवार, 5 अप्रैल 2009

अब तो बस गोली मारने का अधिकार मिलना चाहिए

दरअसल अभी अपने यहाँ चुनावों का मौसम है तो जाहिर है कि सबसे ज्यादा अधिकारों की ही बातें हो रही हैं। मसलन चुनाव में अपने मतदान का अधिकार, अपराधियों द्वारा न्यायालयों से चुनाव लड़ने का अधिकार, किसी को कुछ भी बकवास करने का अधिकार चाहिए तो किसी को सिर्फ़ दो रुपैये में चावल गेंहू जनता को दिलवाने जैसे वादे करने का अधिकार चाहिए, क्रिकेट वालों को आई पी एल यहाँ करवाने का अधिकार चाहिए था, तो जिसे ख़ुद टिकट नहीं मिला उसे अपने बीवी, बच्चों, भाई, बहनों, या रिश्तेदारों , अपने माली, रसोइए, दूधवाले और कोई नहीं तो कुत्ते के लिए टिकट का अधिकार चाहिए। कमाल है कि सारा समां ही अधिकार मय हो गया है । क्यों न हो आख़िर लोकतंत्र है भाई।

लेकिन मुझे लगता है कि समस्या का हल इस सबसे नहीं निकलने वाला है। देखिये न अब जिन्हें चुनाव लड़ने का अधिकार मिल रहा है, उन बेचारों का भूत और भविष्य जेल के नाम ही समर्पित है सो उनकी सेवा करने या उनसे कोई सेवा करवाने के लिए हमारे जैसे आम बेचारे लोगों को उनसे जेल अथवा थाने में मुलाक़ात का अधिकार मांगना होगा। जो बेचारा ख़ुद नहीं खडा हुआ, वहां तो स्थिति और भी ज्यादा विकट रहने वाली है क्यूंकि उनके पत्नी और जो भी इनके एवज में जीत कर पहुंचा होगा, उनसे मिलने के लिए भी तो आपको हमें इन से ही अधिकार मांगना होगा। एक अधिकार है इन प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का, मगर क्या फर्क पड़ता है इनके आने जाने से। कुत्ते की दम सीधी थोड़े होती है। तो अब तो सिर्फ़ एक ही खालिस उपाय बचता है जो है गोली मारने का अधिकार। अजी सारा झंझट ही ख़त्म।

हाँ प्रश्न सिर्फ़ ये है कि अधिकार देगा कौन और किसको दिया जाए, अभी जो हालत हैं उनमें तो लगभग सारी ही समाज सेवक इतने भले लोग हैं यदि सचमुच ही जनता को ये अधिकार मिल जाएँ तो शायद ही वे उस पल का इन्तजार भी करें। हो सकता है कि मेरी बात कुछ लोगों को बेहद ख़राब, बेतुकी और अतार्किक लगे, मगर यकीनन मन तो यही कर रहा है एक आम आदमी का । क्या बदलने वाला है इस चुनाव के बाद, शायद कुछ नहीं.
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