प्रचार खिडकी

शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

अथ तिप्पन्नीनामा (तिप्पन्नीकारी पर एक अध्याय)

कमाल की दुनिया है ये ब्लोग्गिंग की। आप ही बताइये यदि आप वास्तविक दुनिया में किसी से भी ये कहें , की क्या बात है अजी आजकल बड़े कम्मेंट मार रहे हैं लोग , तो निश्चित रूप से उसे अच्छा नहीं लगेगा और यदि किसी महिला से ऐसा कहा तो निश्चित ही उसके चप्पलों के रसास्वादन से आपको कोई नहीं बचा सकता। मगर यहाँ तो आप जिसे चाहे कम्मेंट मारें, भीगा भीगा कर मारें। खैर,

इस कम्मेंट की कम्मेंतारी से संबंधित कुछ विशेष बातें आपको बताता हूँ। हमारे कुछ ब्लॉगर सिर्फ़ कम्मेंट सुनना या पढ़ना चाहते हैं मगर कम्मेंट करने के लिए इनके पास समय नहीं या शायद शब्द ही नहीं, जो भी आप समझें।

चलिए इतना तक तो ठीक है मगर हमारे कई चिट्ठाकार और चिट्ठाकार्नीइयाँ तो ऐसे हैं की आप उनकी प्रशंशा करें या आलोचना सब कुछ पचा जाते हैं, पलट कर एक शब्द भी फोल्लो अप कम्मेंट नहीं करते, फ़िर शक होता है की अम्मा हमारी उत्कृष्ट टिप्पणियाँ पढी भी गयी या नहीं।

मगर तिप्प्निनामा का सबसे दुखद अध्याय तो ये है। :-

पहला सच, ब्लोग्गिंग के बड़े महारथी कभी टिप्पणी नहीं किया करते हैं।
दूसरा सच , टिप्पणियाँ सबको अच्छे लगती हैं चाहे सिर्फ़ एक शब्द ही हो।
तीसरा सच , हमारे हजारों ब्लोग्गेर्स ऐसे हैं जिनके ब्लॉग पर टिप्पणियों का भयंकर अकाल है।

सबसे बड़ा सच। यार, कुछ तो ऐसा लिखो की तिप्प्न्नी करने का मन करे।

तो इन उत्तम या घटिया विचारों के साथ तिप्प्न्नीनामा का ये अध्याय समाप्त होता है॥

मेरा अगला पन्ना होगा :- ब्लॉगजगत का प्रथम विश्वयुद्ध .

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

अतीत की एक खिड़की (कविता )

अतीत की,
इक झरोखा ,
जबसे,
अपने अन्दर,
खोला है॥

आँगन के,
हर कोने पे,
टंगा हुआ,
बस,
खुशियों का,
झोला है॥

तोतों के,
झुंड मिले,
तितलियों की,
टोली भी,
बरसों बाद ,
सुन पाया,
मैं कोयल की,
बोली भी॥

आम चढा ,
अमरुद चढा ,
नापे कई,
नदी नाले भी,
बन्दर संग ,
मिला मदारी,
मिल गए ,
जादू वाले भी॥

नानी से फ़िर,
सुनी कहानी,
दादी ने ,
लाड दुलार किया,
गली में मिल गयी,
निम्मो रानी,
जिससे मैंने , प्यार,
पहली बार किया॥

बारिश पडी टू,
नाचे छमछम,
हवा चली और,
उडी पतंग,
मिली दिवाली,
फुल्झाध्यिओं सी,
इन्द्रधनुष से,
होली के रंग॥

फ़िर इक,
हल्का सा,
झोंका आया,
खुली आँख और,
कुछ नहीं पाया॥

काश , कभी,
वो छोटी खिड़की,
यूं न बंद होने पाती,
ख़ुद खोलता,
मैं उसको,
रोज ये जवानी,
बचपन से ,
जा कर मिल आती॥

अफ़सोस की ये खिड़की सिर्फ़ तभी खुलती है जब मैं गहरी नींद में होता हूँ.

बुधवार, 27 फ़रवरी 2008

खुद को इक दिन इंसान बना लूंगा (कविता)

कोशिश मेरी,
जारी है,
इक दिन ,
मैं खुद को,
इंसान बना लूंगा॥

जब्त कर लूंगा ,
सारा गुस्सा ,
और नफरत भी,
भीतर ही अपने,
अभिमान दबा दूंगा॥

तुम रख लेना,
मेरे हिस्से की,
खुशी का,
कतरा-कतरा,
तुम्हारे सारे,
ग़मों को अपना,
मेहमान बना लूंगा॥

उखड जायेंगे,
सियासत्दाओनोन् के,
महल और,
मनसूबे भी,
बेबसों की,
आहों को वो,
तूफान बना दूंगा॥

तुम दरो न,
की कहीं ,
मेरे हमनाम,
बन कर,
बदनाम ना हो जाओ,
जब कहोगे,
खुद को, तुमसे,
अनजान बना लूंगा॥

बेशक मुझे,
बड़े नामों में,
कभी गिना ना जाए,
बहुत छोटी ही सही,
मगर अपनी,
पहचान बना लूंगा।

कोशिश जारी है और आगे भी रहेगी...

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

छोडो रहने दो ( एक कविता )

तुम क्यों हो,
यूं परेशाँ,
मेरी खातिर,
चलो छोडो,
मेरे जज्बात,
मुझ ही तक,
रहने दो॥

जो अब भी ,
न समझे तुम,
मेरी नज़रों ,
की भाषा ,
ख़त्म करो,
ये बात ,
यहीं तक,
रहने दो॥

मैंने कब कहा,
की तुम,
मुझे अपना,
हमकदम बना लो,
जो रास्ते,
और भी हैं,
चले जाओ खुशी से,
ये साथ,
यहीं तक,
रहने दो॥

मैं जानता हूँ,
तुम चमकता,
चाँद हो,
मैं चमकती रेत,
मगर गर्दिशों की,
तुम रहो,
आसमान में मुस्कुराते,
जमीन तक,
रहने दो॥

मैंने कब,
कहा तुमसे,
की तुम,
रुस्वाइयां झेलो,
हमें टू ,
आदत है इसकी,
ये सौगात ,
हमीं तक,
रहने दो॥

चलो छोडो , रहने दो ...............

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

अग्ग्रेगातोर्स से चंद बातें

पिछले दिनों अचानक देखा की चिट्ठाजगत गायब हो गया। में हैरान- परेशान हुआ की ये क्या। भैया जब चिट्ठाजगत ही नहीं होगा टू हमारे चिट्ठे क्या अन्तरिक्ष जगत में उतरेंगे। मगर शुक्र है की जल्दी ही दोबारा से अपने चिट्ठों का शहर नज़र आ गया । ये सच है की हमारे इन संकलकों के बगैर हमारे चिट्ठे एक ही ट्रेन में चल रहे उन मुसाफिरों की तरह हैं जिनके सफर का माध्यम एक ,मंजिल एक , मगर फिर भी वे एक दूसरे से अनजान हैं।ये तो अग्ग्रेगातोर्स से संबंधित अच्छी बातें हैं अब उनसे कुछ अलग अपने दिल की बातें हो जाएँ।

ये ठीक है की आप लोग अपनी और से कई सारी तब्दीलियाँ कर रहे हैं मगर मुझे लगता है कुछ बातें और होनी चाहिए। मसलन ज्यादा से ज्यादा चिट्ठे एक साथ ज्यादा से ज्यादा समय तक मुखपृष्ठ पर दिखें। हालांकि मौजूदा व्यवस्था अच्छी है मगर इसके साथ ही यदि मुखपृष्ठ पर लगभग पचास छोटे छोटे दिब्बाकार चित्रों या की ब्लॉगर के जो भी निशाँ हैं वो उपलब्ध हों , ताकि ये पता चल सके की इन लोगों ने भी पिछले कुछ समय में पोस्ट लिखी हैं।

साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक ही सही मगर एक लघु समीख्सा प्रस्तुत की जानी चाहिए। इस समीक्षा में बीते दिनों में आए नए ब्लोग्गेर्स और उनके ब्लॉग का संशिप्त परिचय, पिछले दिनों के मुख्य विषय या फिर वे विषय जो या जिनपर सबसे ज्यादा लिखा और पढा गया। आप आग्रीगातोर्स की कोई सूचना या भैविश्य की कोई योजना आदि की जानकारी दी जाए। यदि सबकी इच्छा हो तो कुछ विषय दिए जा सकते हैं जिन पर इच्छुक ब्लॉगर लिख सकें। मेरे ख्याल से जहाँ ये सबको जोड़ कर रखने में सहायक होगा वहीं एक ठोस दिशा भी मिल सकेगी।

सबसे जरूरी बात ये की जब नए ब्लोग्गेर्स आते हैं तो उनकी कई-काई पोस्टों पर कोई तिप्पन्नी नहीं आती इससे उन्हें जरूर ही थोड़ी निराशा होती है। इसलिए अच्छा होगा की अग्ग्रेगातोर्स की तरफ़ से कोई ऐसी व्यवस्था की जाए की नए ब्लोग्गेर्स के ब्लॉग पर स्वचालित टिपप्नियाँ पहुंचे ताकि उनको प्रोत्साहन मिल सके।

एक और बात । इन दिनों देखने में आ रहा है की बहुत से ब्लॉगर जाने अनजाने दूसरों की पोस्टों को अपने ब्लॉग पर दिखा रहे हैं। इसलिए जैसे ही ये सूचना अग्ग्रेगातोर्स को मिले (जाहिर है की ये काम वही ब्लॉगर कर सकतें हैं जिनकी पोस्ट्स चोरी हुई हैं ) तो वे तत्काल ही उन ब्लोग्गेर्स को जो की नक़ल कर रहे हैं एक सख्त हिदायत दें ताकि भविष्य में वे दोबारा ऐसा ना करें।

मुझे नहीं पता की मेरे विचार आपको कैसे लगे , बस दिल चाहा सो आपको बता दिया.

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

बड़े ब्लॉगर से रूबरू

यूं तो अभी इस ब्लॉग जगत पर मेरी इतनी हैसियत नहीं हुई है की ब्लॉग जगत या कहूँ कि हिन्दी साहित्य के बड़े स्तंभों के रूप में पहचान बना चुके वरिष्ठ चिट्ठाकारों से रूबरू, आमने-सामने, कुछ कह सकूं , परन्तु फ़िर भी एक अनुज या शिष्य के नाते ही उनसे कुछ कहने का मन कर रहा है॥

पहली बात तो ये की आप सभी बड़े चिट्ठाकारों ने एक अघोषित दायारा बना हुआ gअम्भीर -गंभीर विषयों पर गूढ़ चिंतन, बड़े-बड़े आलेख, विचार- विमर्श, तर्क-वितक, आकलन-विश्लेषण होते रहते हैं। और इधर कुछ दिनों से देख रहा हूँ की आप लोग कुछ ज्यादा ही आलोचनात्मक हो गए हैं। एक दूसरे की जबरदस्त खीन्चाई कर रहे हैं। आरोप-प्रतारोप और स्पस्तीकरण का दौर सा आ गया है जैसे। वैसे तो ये आपके दायरे की बात है मगर यदि सबकुछ सकारात्मक हो तो ज्यादा अच्छा नहीं है क्या। कभी कभी तो ठीक है मगर हर वक्त प्रहारक की भुमिका में रहना क्या उचित है??

अब दूसरी बात। आप सब ये बताइये की क्या हम छोटे छोटे अनजान ब्लोग्गेर्स आप सबके लिए कोई मायने नहीं रखते । क्या आपको नहीं लगता की आप लोगों को बड़े भी या कहूँ की मार्गदर्शक की भूमिका के आना चाहिए। मैं मानता हूँ की ये आपकी जिम्मेदारी नहीं है। मगर गुरूजी लोग, क्या आपको नहीं लगता की एक तरफ़ टू विभिन्न समाचार माध्यमों और ब्लॉगजगत पर भी आप लोग ब्लोग्गिंग की सार्थकता उसके भैविश्य पर काफी लिखते रहती हैं । मगर कभी हमें कुछ बताने , समझाने , डांटने के फुरसत आप लोगों को नहीं मिलती। ये जरूरी नहीं और न ही सम्भव है की हरेक को अलग-अलग ये बात बताई जाए, पोस्टों के माध्यम से भी ये हो सकता है। अभी टू हालत ये हैं की यदि हम जैसा की ब्लॉगर किसी वरिस्थ चिट्ठाकार की कोई तिप्प्न्नी अपने ब्लॉग पर देख ले टू मरे खुशी के बेहोश ही हो जाए।

यदि ब्लॉग लेखन और ब्लोग्गिंग को सार्थक दिशा देनी है टू आप सभे वरिष्ठ लोगों को अपने अदृश्य आभाचाक्रा से बाहर आना ही होगा। आप सबके मार्गदर्शन का इंतज़ार रहेगा..

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

एक शीर्शकविहीन कविता

रोज़ दिखते हैं,
ऐसे मंज़र कि,
अब तो ,
किसी बात पर ,
दिल को,
हैरानी नहीं होती॥

झूठ और फरेब से,
पहले रहती थी शिकायत,
पर अब उससे कोई,
परेशानी नहीं होती॥

रोज़ करता हूँ ,
एक कत्ल,
कभी अपनों का,
कभी सपनो का,
बेफिक्र हूँ ,
गुनाहों कि फेहरिस्त,
किसी को दिखानी नहीं होती॥

लोग पूछते हैं,
बदलते प्यार का सबब,
कौन समझाए उन्हें,
रूहें करती हैं, इश्क,
मोहब्बत कभी,
जिस्मानी नहीं होती॥

सियासतदान जानते हैं,
कि सिर्फ़ उकसाना ही बहुत है,
शहरों को ख़ाक करने को, हर बार,
आग लगानी नहीं होती॥

पाये दो कम ही सही,
पशुता में कहीं आगे हैं,
फितरत ही बता देती है,
नस्ल अब किसी को अपनी,
बतानी नहीं होती॥

अजय कुमार झा
9871205767

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

वाह लोग फुरसत में हैं.

यारों, मुझे लगता था की इस मारामारी के दौर में सब, खासकर शहरों में, इतने व्यस्त हैं की उनके पास समय देखने और बताने तक के लिए समय नहीं है। कलाई झटक कर टाईम देख कर बताने से आसान तो यही लगता है की सिर्फ़ कह दो - घड़ी नहीं है। छुट्टी। मगर अब जबकि पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर गौर फ़रमाता हों तो लगता है की बस एक हम जैसे धोबी के घधे टाईप लोगों के साथ ( यहाँ में स्पष्ट कर दूँ की अक्सर ऐसे विशिष्ट स्थानों पर मुझमें ये पशुगत आचरण भाव उत्पन्न हो जाता है जैसे अक्ल के मामले में ऊल्लू या फिर हैसीयत के मामले में धोबी का कुत्ता आदि ) ही ये हालात हैं। नहीं तो सबके पास टाईम ही टाईम है॥

अब देखिये न मुम्बई में ठाकरे साहब ने अपने ठकुराई दिखाते हुए मराठा महारथियों को पता नहीं कौन सा मंतर फूंक दिया की सब निकल पड़े , बेचारे सब्जी भाजी बहकने वालों, रिक्शा , रेहडी वालों से यूं निपटने जैसे मुग़ल सेना से निपट रहे हो०न्। इसके बाद प्रेम दिवस पर भी बहुत सारे शिव भक्त लोग दिन भर घूम घूम कर प्रेमालाप
कर रहे युगल प्रेमियों को घेर घेर कर पीटते रहे.

अजी बात यहीं तक सीमित रहती तो चल जाता , मगर ये तो हद हो गयी भैया. सूना देखा की hअजारों लोग नई पिक्चर जोधा अकबर का विरोध करने सड़कों पर उतर आए. इतिहास-वितिहास का तो पता नहीं मगर इतना यकीन है की यदि अकबर भी जिंदा होता तो यकीनन ही इतनी सुंदर जोधा के लिए ये नहीं कह सकता था की ये मेरे प्रेमिका नहीं है.
मगर इन सब लाफ्दों के बीच जो एक बात मुझे समझ में आई वो ये की यार शायद हम घोंचू logon ke अलावा सबके पास टाईम ही टाईम है। अजी बहुत से अब्दुल्ला घूम रहे हैं बेगाने की शादी में दीवाने होने को .

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

एक कविता

फ़ैली है रोशनी,
और,
जश्न का माहौल,
छाया हर ओर है ॥

पर बीच बीच,
इसके दर्द का,
चीख का उठता ,
कैसा ये शोर है॥

नींद से बोझिल नयन,
तन-मन बिल्कुल थका हुआ,
अँधेरा है और उदासी भी,
आज कैसी ये भोर है॥

यूं हर खुशी है सबके पास,
पर अपने तक है ये एहसास,
दूसरे के लिए करने-देने को,
हर आदमी कमजोर है॥

मैं मरहम की ख्वाहिश नहीं करता,
जख्म यूं भी भर जायेंगे,
पर रोज़ एक नई चोट से मन,
दुखता पोर -पोर है॥

बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

दरकते रिश्ते (एक कविता )

मर रहा है ,
हर एहसास आज,
और रिश्ते भी ,
दरकते जा रहे हैं॥

अब ख़ुद पर बस नहीं,
कठपुतली , बन वक्त के साथ,
थिरकते जा रहे हैं॥

लगे तो रहे, ताउम्र, पर जाने,
निपटाए काम की, हम ही ,
निपटते जा रहे हैं॥

gairon से दुश्मनी की,
कहाँ है फुरसत,
हम तो अपनों से ही,
उलझते जा रहे हैं।

न खाते-पैगाम, न दुआ सलाम,
युग हो रहा है वैश्विक, हम,
सिमटते जा रहे हैं॥

चाहता हूँ की रहे साथ सिर्फ़ मोहाब्बत,
पर खुदगर्जी और नफरत भी मुझसे,
लिपटते जा रहे हैं॥

सपने पाल लिए इतने की,
भिखारियों की मानिंद,
घिसटते जा रहे हैं॥

आंखों ने रोना छोडा,
हमने भी सिल लिए लैब,
जख्म ख़ुद ही अब तो ,
सिसकते जा रहे हैं॥

कैसे कोसुं अब,
इस पापी दुनिया को,
जब मुझमें भी सभी पाप,
पनपते जा रहे हैं॥

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

मैं ( एक कविता )

अब तनहाइयों को ,
सुनता हूँ,
और कभी खामोशियों से,
बतियाता हूँ मैं॥

जो लगता है असंभव,
खुली आंखों से,
बंद कर आँखें , उन्हें सच,
बनाता हूँ मैं॥

छाँव में छलनी,
होता है मन,
अक्सर धूप में,
सुस्ताता हूँ मैं॥

बारिश की मीठी बूँदें,
मुझे तृप्त नहीं करतीं,
इसलिए समुन्दर से ही,
प्यास बुझाता हूँ मैं॥

उसको जिताने की ख़ुशी,
बहुत भाती है मुझे,
इसलिए हमेशा उससे,
हार जाता हूँ मैं॥

दर्द से बन गया है,
इक करीबी रिश्ता,
जब भी मिलता है सुकून,
बहुत घबराता हूँ मैं॥

मैं जानता हूँ कि,
मेरे शब्द कुछ नहीं बदल सकते,
फिर भी जाने क्यों ,
इतना चिचयाता हूँ मैं॥


अजय कुमार झा
9871205767.

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

क्या सचमुच प्यार सिर्फ एक बार होता है ?

आजकल हर तरफ प्यार की बातें, इश्क की चर्चा , और मोहब्बत के अफ़साने लिखे जा रहे हैं। हालांकि आज वसंत पंचमी है और यदि पहले की तरह गाँव में होता तो जरूर ही सरस्वती पूजा में लगा होता। वहाँ कहाँ ये वलेंताईन का कल्चर है अभी भी, वैसे तो वहाँ भी थोडा थोडा तो सब कुछ बदल ही रहा है , पर फिर भी यहाँ महानगरों वाले हालत तो नहीं ही हुए हैं। यूं तो मैं इस वलेंताईन कल्चर खासकर यहाँ के बदलते माहौल में जो भी इसका स्वरूप हो गया है उसमें इस प्रचलित होती संस्कृति से ज्यादा सहमत नहीं हूँ, कारण स्पष्ट है कि मुझे लगता है कि अभी भी हमारे बच्चे और हमारा समाज उतना विकसित , विशेषकर मानसिक तौर पर उस स्तर पर नहीं पहुंच सका है जहाँ इस वलेंताईन और इस जैसी पश्चिमी रिवाजों से प्रेरित और भी कुछ अपनाया जाये। मगर मेरे सोचने से कुछ नहीं होता और ये एक निर्विवाद सत्य है कि पिछले कुछ बरसों में तो ये संस्कृति बहुत तेज़ी से फ़ैली और फैलती जा रही है। खैर, आज मैं कुछ और बात कहना चाहता हूँ।

बचपन से आगे जब भी होश सम्भाला और प्यार के बारे में जो कुछ भी सुना और जाना वो ये था कि एक तो प्यार किया नहीं जाता और दूसरा ये कि प्यार सिर्फ एक बार ही होता है । मगर मेरा अपना अनुभव इसके बिल्कुल विपरीत रहा। सच तो ये है कि मुझे कभी भी प्यार हुआ नहीं , बल्कि या तो किसी और ने मुझसे प्यार किया या फिर ऐसा हुआ कि मैंने उससे प्यार किया। इतना ही नहीं कई बार तो मुझे ऐसा लगा कि जो भी , या जिससे भी मैं प्यार करना चाहता था उसे मुझे सोच समझ कर बताना पडा ये तक कि यदि उसने मुझे छोड़ कर अपने दुसरे विकल्प के बारे में सोचा तो ये उसके लिए और मेरे लिए ज्यादा नुकसानदेह बात होगी। और रही सिर्फ एक बार की बात , तो वो तो बिल्कुल ही गलत लगती है, ये जरूर सच होता है कि पहला प्यार या आकर्षण , जैसा कि सब उसे कहते हैं वो इंसान ताउम्र नहीं भूलता है मगर ये शायद सबके साथ नहीं होता कि उसे प्यार सिर्फ एक बार हो बल्कि मेरे ख्याल से इस बात का कोई निश्चित पैमाना, या उम्र ,या कुछ और नहीं होता कि अमुक आदमी को सिर्फ एक बार प्यार होगा या कि नहीं होगा। या फिर ऐसा हो सकता है कि चूँकि ये कच्चे उम्र का प्यार हमेशा ही अपरिपक्व और एक प्रकार का आकर्षण मात्र होता है इसलिए सही अर्थों में प्यार ही नहीं होता।

वैसे तो सच कहूं तो अब तक तो यही नहीं समझ पाया कि प्यार होता क्या है, जितने इंसान , इंसान ही क्यों जानवर भी , उतने ही तरह का प्यार देखने और समझने को मिलता है । मेरा अनुसंधान भी जारी है।

खैर , कोई बात नहीं जो चाहते है उन्हें हैप्पी वलेंताईन डे..

शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

आदमियों की भीड़ में इंसान नहीं मिलता

यहाँ आदमियों की,
भीड़ है,
पर कोई,
इंसान नहीं मिलता..

सबसे निश्छल,
सबसे निष्पाप,
ऐसा कोई,
नादाँ नहीं मिलता॥

बेईमानों की,
पहुंच ऊंची है,
रुत्बेदार कोई,
ईमान नहीं मिलता॥

पंख मिलते ही,
उड़ जाते हैं परिंदे घरों से,
माँ-बाप की लाठी सा,
संतान नहीं मिलता॥

हर तरफ शोर है,
कहीं रोने का, कहीं गाने का,
शहर का कोई कोना,
सुनसान नहीं मिलता॥

यूं तो धनकुबेरों की,
फेहरिस्त है बहुत लम्बी,
पर गरीबों को अपना कहे जो,
धनवान नहीं मिलता॥

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008

हिन्दी भाषी हो , भुगतो सालों

तो एक बार फिर से हिन्दी भाषियों को अपनी खानाबदोशी की कीमत चुकानी पड़ रही है। हिन्दी भाषी क्या , सीधा-सीधा, कहो न बिहारी और यू पी वालों को। देश के सबसे बड़ी जनसंख्या वाले इन दो राज्यों के हम जैसे लोग सच्मुघ आज के खानाबदोश ही तो है। कभी पढाई, कभी रोजगार, तो कभी व्यवसाय के लिए मजबूर होकर दिल्ली, बम्बई ,कलकत्ता जैसे महानगरों का रुख कर लेते हैं। वहाँ अपना खून पसीना , अपना श्रम, अपना समय, अपनी सोच लगाकर उस स्थान विशेष के लिए करते रहने के साथ=साथ अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहते हैं। इन महानगरों में अपनी सरलता, सच्चाई, निरक्षरता, के लिए कदम-कदम पर अपमानित होते रहने की नियति के साथ=साथ कभी असम, कभी बंगाल, कभी विदर्भ तो कभी महाराष्ट्र में अचानक ही शरणार्थियों से भी बदतर स्थिति में पहुंच जाते हैं॥


राज ठाकरे के बाद दिल्ली के तेजेंद्र खन्ना ने अपने हिस्से का जहर उगल दिया। भैया कलकत्ता मद्रास वालों आप लोग भी अपना विचार दे ही दो ताकि पता तो चले कि हमारी औकात क्या है। खूब मारो-पीतो, नोचो-, तोड़ो-फोडो, । मगर यार मेरी सकझ में एक बात नहीं आती, रिक्शे वाले, पान वाले, सब्जी वाले, को पीटने से क्या होगा। यार बडे मंत्रियों , अधिकारियों , उद्योगोपतियों, कर्मचारियों को पीट-पात कर भगाओ तो हिम्मत की बात है। मीडिया , सरकार, दफ्तर, बैंक, हस्पताल, कौन सी ऐसी जगह हैं जहाँ ये सो कॉल्ड हिन्दी भाषी नहीं हैं । हालांकि यहाँ राजधानी में भी बिहारी और कहते हैं न कि भैया लोगों के साथ जो व्यवहार होता है वो किसी न किसी दिन भारी पड़ने वाला है मगर गनीमत है कि हिन्दी भाषी होने की कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती है । मुझे कोई ये बात कह कर तो देखे , मगर शायद इसके लिए तुलसी दास ने बहुत पहले ही कह दिया था कि समर्थ को नहीं दोष गोसाईं ॥

इस विवाद का चाहे जो भी अंत हो , चाहे जितना भी खराब परिणाम हो मगर इतना तो पता चल ही चुका है कि आने वाले समय में ये नेता लोग इस देश को कभी भाषा, कभी धर्म, कभी जाति, कभी बिना किसी आधार के ही अंग्रेजों की तरह टुकड़े टुकड़े बाँट कर खुद तमाशा देखेंगे। हम पहले भी गधे थे आज भी गधे हैं, और हमेशा ऐसे ही गधे रहेंगे॥

तो भैया हिन्दी बोलने, पढ़ने, लिखने ,समझने, वालों अब भुगतो सालों.

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008

दर्द संभालता हूँ मैं ( एक कविता )

हर पल,
इक नया ,
वक़्त ,
तलाशता हूँ मैं॥

जो मुझ संग,
हँसे रोये,
वो बुत,
तराश्ता हूँ मैं॥

मेरी फितरत ,
ही ऐसी है कि,
रोज़ नए दर्द,
संभालता हूँ मैं॥

परवरिश हुई है,
कुछ इस तरह से कि,
कभी जख्म मुझे, कभी,
जख्मों को पालता हूँ मैं॥

सुना है कि, हर ख़ुशी के बाद,
एक गम आता है, तो,
जब भी देती है, ख़ुशी दस्तक,
आगे को टालता हूँ मैं॥

वो कहते हैं कि,
धधकती हैं मेरी आखें,
क्या करूं कि सीने में,
इक आग उबालता हूँ मैं॥


क्या करूं , ऐसा ही हूँ मैं....

बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

वो लड़कपन के दिन (एक कविता )

काश कि ,
कभी उन,
लड़कपन के,
दिनों में फिर से,
जो लॉट मैं पाता॥


खुदा कसम,
उस बचपने और,
उस मासूमियत से,
यहाँ फिर कभी मैं,
न लॉट के आता॥

वो कागज़ की नाव,
वो कागज़ की प्लेन,
और कागज़ की पतंग,
हर बच्चा, हर रोज़,
कागज़ की कोई दुनिया बनाता॥

कभी पतंगों की लूट,
कभी झगडे झूठ मूठ,
वो छोटी सी साइकल,
उसकी घंटी की टन टन , अब,
कार में कहाँ वो आनंद है आता॥

वो होली-दिवाली का,
महीनों पहले से इंतज़ार,
कहाँ भूल पाया हूँ,
वो बचपन का प्यार, काश कि,
खुदा फिर उससे मिलाता॥

कभी बाबूजी की दांत, कभी माँ का लाड,
कभी काच्चे अमरुद, कभी बेरी का झाड़,
बीता जो लड़कपन तो ,
बना ये जीवन पहाड़, काश कि,
ये पहाड़ मैं कभी चढ़ न पाता॥

काश कि ,
कभी उन,
लड़कपन के,
दिनों में, फिर से,
जो लॉट मैं पाता॥????


क्या आपको भी वो दिन सताते हैं , या कि कुछ याद दिलाते हैं??

सोमवार, 4 फ़रवरी 2008

जिन्दगी (एक कविता )

क्यों तन्हा ,
और,
वीरान है जिन्दगी॥

ना जाने,
किस गम से,
परेशान है जिन्दगी॥

साँसे तो हैं,
इस दिल में , पर,
बेजान है जिन्दगी॥

इतनी आबादियों के ,
बीच भी,
सुनसान है जिन्दगी॥

बीते और आने वाले ,
कल के बीच ,
वर्तमान है जिन्दगी॥

युगों युगों की दौड़ में,
चंद बरसों की,
मेहमान है जिन्दगी॥

प्रेम-द्वेष, सुख-दुःख,
हर फलसफे, हर एहसास की ,
पहचान है जिन्दगी॥

बहुत जाना , बहुत समझा,
लेकिन अब भी ,
अनजान है जिन्दगी॥

दोनो सच्चे पहलू हैं,
कभी दर्द का कतरा,
कभी मुस्कान है जिन्दगी॥

कहिये आप क्या कहते हैं जिन्दगी के बारे में.

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

शहरी होने की कीमत

कल ही गाँव से माँ का फोन आया, कहने लगी " बेटा दुर्गा पूजा गयी, छत पूजा भी हो गयी, मकर सक्रान्ति बीता, और बसंत पंचमी भी आने को है, और लगता नहीं है कि होली पर भी तेरी सूरत देख पाउंगी, तेरे शहरी होने की मैं और कितनी कीमत चुकाउंगी रे "।

मैं हमेशा की तरह अवाक और चुप था। मगर इस बार माँ के इस सवाल ने मुझे झिन्झोर कर रख दिया। गाँव से शहर आना मजबूरी थी और शहरी बन जाना नियति। पढाई के बाद और नौकरी में आने से पहले के बीच के वक़्त में जो सोच , जो तनाव मन मस्तिष्क में था उस ने कभी ये मौका ही नहीं दिया कि मैं ये अंदाजा भी लगा सकूं कि कितना कुछ खोना पडा और उस वक़्त इसकी गुंजाइश भी नहीं थी। पर मुझे क्या पता था कि मैं यहाँ का हुआ तो फिर यहीं का होकर रह जाऊँगा।

यहाँ नौकरी, ओहदा, सम्मान, सब कुछ हासिल कर लिया। मगर वो मासूमियत, वो अपनेपन का एहसास, दूसरों के दर्द और अपनी खुशियों को साझा करने का सुख , वो कुछ कर गुजरने की तमन्ना, कुछ बदल डालने की ललक, वो दोस्तों का साथ, माँ पिताजी, दादी, नानी, आम के बाग़, सब कुछ खो गया। ना जाने कहाँ, कब, कितना पीछे॥


मगर सबसे बड़ी कीमत चुकाई मेरे माँ पिताजी ने जो बिल्कुल उस माली के तरह हैं जिसके ऊगाये चंदन के पेड़ से सारा जहाँ महकता है सिवाय उसके अपने आँगन के ।

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

जाने क्यूँ (एक कविता )

जाने क्यूँ,
आज,
हरेक शख्श,
हर एक बात पर,
खफा खफा सा है ??

जाने क्यूँ,
काफिले का,
हर राहगीर,
और महफ़िल,
सजाने वाला भी,
जुदा जुदा सा है॥

अब तो ,
कुछ भी,
नया नहीं लगता,
हर दर्द, हर चोट,
हरेक हादसा,
मुझको, लगता ,
सुना सुना सा है॥

पहली किरण की,
थपकी से,
जिस कली ने,
बाहें है फैलाई,
सुबह सुबह ही,
वो फूल भी लगता,
थका थका सा है॥

तारीखें तो ,
बदल रही हैं,
मगर ,
जाने क्यूँ,
कब से ,
ये वक़्त,
रुका रुका सा है।
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...